ऋग्वेद (मंडल 2)
तस्मा॒ इद्विश्वे॑ धुनयन्त॒ सिन्ध॒वोऽच्छि॑द्रा॒ शर्म॑ दधिरे पु॒रूणि॑ । दे॒वानां॑ सु॒म्ने सु॒भगः॒ स ए॑धते॒ यंयं॒ युजं॑ कृणु॒ते ब्रह्म॑ण॒स्पतिः॑ ॥ (५)
उसी की ओर सभी नदियां बहती हैं, वह अविच्छिन्न रूप से समस्त सुख प्राप्त करता है एवं सौभाग्यशाली देवों द्वारा प्रदत्त सुख पाकर बढ़ता है. जिसे ब्रह्मणस्पति मित्र कहकर स्वीकार कर लेते हैं. (५)
Towards Him all the rivers flow, He achieves all the happiness in an uninterrupted manner and grows with the happiness provided by the fortunate gods. Which the Brahmanaspatis accept as friends. (5)